Thursday 22 October 2015



दो कान, दो आँखे और एक मुंह

कुछ लोग बोलते है तो इतना बोलते हैं कि उन्हें पता ही नहीं होता कि क्या बोल गए. वे सुनते ही नहीं हैं सामने वाले की. ऐसा लगता है कि जैसे उन्हें एक और मुंह मिला गया हो. जब दो लोग ऐसे मिल जाएं तब तो किसी को किसी की बात समझ में नहीं आती. और जहां १० में से ८ लोग  ऐसे मिल जाएं वहां बंटाधार है. एक की बात पूरी नहीं होती तो दूसरा शुरू हो जाएगा दूसरे ने बात शुरू की तो तीसरा चालू हो जाएगा, फिर चोथा पांचवा छठा शुरू हो जाएगा और इस तरह पूरी धमाचोकड़ी मच जाएगी. ऐसे लोगों को एक नेक सलाह है कि हमें सुनने के लिए दो कान और बोलने के लिए एक मुंह मिला है. हमें दुगुना सुनना है और उस हिसाब से आधा बोलना है. और यह करना कठिन है. वही इंसान कर सकता है जो जाग रहा हो.


सबसे पहले दो कान और एक मुंह को लेते हैं. असल में दुनिया में हमें सबको सुनना चाहिए और भरपूर सुनना चाहिए और जाग कर सुनना चाहिए. जो इंसान सबकी सुन लेता है जाग कर, वो महान व्यक्ति है. हर तरह के इंसानों को सुनना चाहिए और जब हम विभिन्न इंसानों को सुनते हैं ,हमारा नजरिया बिलकुल अलग होता है. अलग अलग दृष्टिकोण सुनने को मिलते हैं. हो सकता है एक दृष्टिकोण दूसरे दृष्टिकोण से बिलकुल विपरीत हो, मगर एक पॉइंट पर आकर सारे दृष्टिकोण एक जाते है. उदाहरण के तौर पर मैं यहाँ विभिन्न धर्मों को लेता हूँ धर्म यूं तो सभी अलग अलग संकेत देते है मगर शान्ति हो, यह सभी धर्म चाहते है. तो यह कॉमन दृष्टिकोण है. विभिन्न धर्म सबसे अधिक विरोधाभासी लगते है. जिन लोगों को सभी धर्मों में एकाकार मिल जाता है वह सही मायने में दो कान और एक मुंह और दो आंखे और एक मुंह वाली बात को सत्य करता है.

दो आखें और एक मुंह के अनुसार हमें दुगुना पढ़ना चाहिए और उस हिसाब से ही हमें बोलना चाहिए. जहां तक पढने की बात चली है तो इस दिशा में अथाह सागर है. पढने के लिए बहुत कुछ उपलब्ध है विभिन्न जीवनियां है, कहानिया हैं, कविताएँ है, आलेख हैं, ग्रन्थ हैं,शायरी है, रुबाई है, और अभी पूरे विश्व में कविता का नया रूप आया है हाइकु जो मूलतः जापान की १६ वीं शताब्दी की कविता है यह केवल १७ शब्दों वाली और तीन पंक्तियों में लिखी जाने वाली कविता है और कोई भी एक लाइन दूसरी लाइन से मेल नहीं खाती मगर हर लाइन अपने में सम्पूर्ण होती है, तो इस तरह से पढने के लिए अथाह सागर है. फिर जितनी भाषाऐ हमें आती है उतना बड़े से बड़ा हमारा विस्तार होता चला जाता है. अकेले भारत में ही इतनी भाषाएँ है कि हम पढ़ते जाएं तो एक उम्र तो निकल जाए.

इतना पढने के बाद इंसान को लगता है कि वो आम आदमी से ऊपर हो गया है जबकि उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए. यह अहंकार की निशानी है. जितना ज्यादा इंसान सुनता है और जितना ज्यादा पढ़ता है उतना ही उसे बात गहरी समझ में आती है. उसे लोगों के बीच में रहना अच्छा लगता है. उसे उतना ही लोगों का साथ पसंद आता है.

तो इस हिसाब से अगर इंसान जितना बोले उससे दुगुना सुने, और दुगुना पढ़े तो जीवन सार्थक हो जाए.    

( पुस्तक "सहज अभिव्यक्ति" से )

के.बी.व्यास